ज़र्द चेहरों की किताबें भी हैं कितनी मक़्बूल…
तर्जुमे उन के जहाँ भर की ज़बानों में मिले…
ज़र्द चेहरों की किताबें भी हैं कितनी मक़्बूल…
तर्जुमे उन के जहाँ भर की ज़बानों में मिले…
मुमकिन नहीं मेरा पहले जैसा हो पाना
खुद को बहुत पीछे छोड़ आई हूँ मैं
कोई मुझ से पूछ बैठा ‘बदलना’ किस को कहते हैं ?
सोच में पड़ गया हूँ मिसाल किस की दूँ? “मौसम” की या “अपनों” की…🌻
आँखों से निकले हर आँसू को
तलाश होती है अपनी एक मुस्कान की …
-मधुलिका
बहुत कुछ चाहिए नहीं मुझे ,
मुस्कुराने के लिए,
तुम्हें मुस्कुराता हुआ देखूं,
बस इतना काफी है मेरे लिए ।
_अर्चना शर्मा
पत्नी की बातों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से रोज़ निकालना भी,
किसी योग से कम नहीं होता है.!
हया नहीं है ज़माने की आँख में बाक़ी
ख़ुदा करे कि जवानी तेरी रहे बे-दाग़ ।


