ख़्वाहिशे ही तो हैं मन के भीतर कितनी मासूमियत से पनपती हैं उचक उचक कर शिशु की भाँति लगाती हैं पुकार पूर्णता को पाने के लिये पैर पटकती हैं चाहत होती है के सब पा लें सहज़ ही मगर कहाँ इतना सहज़ है इनकी ही तरह सहज़ हो पाना बस इतनी सी बात को ये दुनिया कहाँ समझती है...!!