"मर्यादाओं" के सारे द्वार तब शर्मशार हो जाते हैं,
जब "दुशासन" जैसे महानीच अस्मत को ढाल बनाते हैं,
और वो महिमा थी द्वापर की, जो लाज बची थी "द्रौपदी" की,
अब कौरव निर्वस्त्र भी कर दें तब भी "कृष्ण" नहीं आते हैं..!!
विरक्ति
ख़ुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को
बदलते वक़्त पे कुछ अपना इख़्तियार भी रख
निदा फ़ाज़ली
आज ये दिल बेवजह ही खुश हैं
लगता है एक नया दर्द मेरे इंतजार में हैं
इंसानियत की बातें सब करते हैं लेकिन
गुस्से में आते ही भूल जाते हैं, वो इंसान हैं।
हिंसा और अज्ञानता के
मकड़जाल को शिक्षा
की छड़ी से
साफ़ किया जा सकता है।
कैलाश सत्यार्थी